नाटककार के पुरस्कृत नाटक की कापी मेज़ पर व्याकुल पडी थी। नाटक के पात्र मेज़ के इर्द-गिर्द घूम अपने अपने डायलाग चबा भी रहे थे । कुछ पच जाते, कुछ उलटी कर जाते और बेशतर होंठो से लिपस्टिक के मानिंद चिपक जाते और तोते सी रट लगाने मे निबट जा रहे थे। निर्देशक आया सबको ग्रीन रूम भेजा और तेज़ी से कापी उठाई। ये क्या? कापी पर नज़र पडते ही चौंक उठा। नाटक के पन्ने नाटक के सारे किरदार पी गये। गढे , लिखे गये हालात, बेहाल टूटी दीवार सी टेडी होती जा रही है। नाटक का कलेजा फटने को हो जैसे। नाटककार की असल ज़िंदगी की बेईमानों और कागज़ पर बुनी ईमानदारी – बारी भरकम तंज़ नही तो और क्या! पर्दे उठते गिरते रहे। मरे हुए किरदारो की तरह नाटक की आत्मा मरी हुई थी। फिर पुरस्कार घोषित हुआ। फिर नाटककार कहानी पर मुखोटा साधा था। उसका सदा यही इरादा था ।